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Thursday, September 26, 2019

My hobby, my choice #NoRegrets

Life always has challenges. And I laugh sometimes that when there is no challenge in life, then life itself becomes a challenge. Though my challenge is not that big, it is just that I am well-educated, married, non-working and have a passion for reading good literature and watching thought-provoking art or offbeat movies. Reading good thought-provoking books or watching movies is not an easy and comfortable affair, you need to invest a lot of your time and attention. And it could make you restless as well, sometimes for a day or two. But, this leisure activity has always been food for my soul and mind. This is what makes me feel alive and also leaves me with regrets. Because reading a good book or novel is like an addiction until you complete reading it you can not sit peacefully. So many times I could not focus on important matters when I was in the middle of reading an interesting book. And sometimes, I have been made feel what is the use of reading the fiction or someone's imagination, it is just a total waste of time and it will not give you money at the end of the day. I often tried to justify for my own sake that reading good books is not just a waste of valuable time and often argued with others as well in the anticipation of winning my own arguments. However, recently I watched Vishal Bhardwaj's trilogy on  Shakespeare's three world-famous classic plays adaptation in Hindi movies: Othello(Omkara), Macbeth(Maqbool), Hamlet(Haider). And I simply was in awe with the director and his interpretation of classic plays of Shakespeare into a modern context. It made me reflect that literature can never be old and obsolete. Literature has always been a shadow of the past and a window of the future, how could it be a mere waste of time...
We live in a society which always keeps judging us. I am also the part of this society and do the same with others, after all, I am also human and could fall to my temptations despite being so knowledgeable. So, my point is that we have brackets for everything. When you are working and could afford to read a book, not only monetarily but also the time investment, you become a role model and are aspired as a person. But if you are jobless or non-working and pursue a good hobby, it is seen as a waste of time instead of giving leisure to you, it fills you with guilt and regret and makes you realize that it might be the only reason for you being a failure(i.e. you don't earn money, do not contribute to economy, so your existence, your passion does not matter). When I was a child, I was told to focus on school academic books, it will give me admission into a better future, don't waste time on books or movies. When I started my career, I hardly had any energy or time to read a book. Now, I am non-working, and I want to spend my time creatively, I am told to do pursue something which adds value to my education and future and worth doing. Pursue a passion with a money-earning work. But I am convinced now that my hobby is my choice, it makes me a person of depth and fills my life with color and I don't need anybody's approval for this. If your gossip could be office politics or family politics, why I could not see the world from the eyes of Shakespeare or Rabindranath Tagore. Literature has not originated simply from the seed of someone's imagination, it has been the mirror of our contemporary society and thrives only because of some good readers like me who challenge the society to pursue this ambition. Though this is the irony of our society that a good reader and a good listener or good audience is not highly celebrated yet. Maybe one day we would be able to see a category for the 'Best Audience Award' in a most sought after gala functions with glamorous stage, at that time my passion will not be seen as only time pass rather an intellectual trait. Till then in the hopes of the positive paradigm shift in peoples thinking, I keep quenching my thirst for good books and movies with  #NoRegrets

Tuesday, September 24, 2019

Ambition is very costly

Recently I watched the Macbeth and Othello, two world-renowned plays by William Shakespeare. And literature is a window of our history and a glimpse of our present. Both of these plays are based on Political Ambition. Life is not black and white, it has many gray shades. And nothing comes free in this society.

Ambition looks lucrative once achieved, but it has its cost associated with it, which usually never comes in the highlight and creates the illusion. So being ambitious is good, but we should be realistic too. 

Wednesday, September 18, 2019

दुर्गा पूजा: अपनों की घरवापसी का उत्सव

साल के इस वक़्त  घर की बहुत याद आती है।  पतझड़ बोलो या शरद ऋतु का प्रारंम्भ, पत्तें रंग बदल रहे हैं, हवा में एक अजीब सी ठण्डक महसूस होती है। दिन छोटे होने लगे हैं, शाम होते-होते ही अँधेरा छाने लगता है, कदमों की चाल जानो बढ़ जाती है घर की ओर जल्दी से पहुंचने को। इंडिया बोलो या अमेरिका, सब जगह साल का ये वक़्त त्योहारों का होता है, कहीं दुर्गा पूजा और दिवाली  की धूम है,  तो कहीं क्रिसमस की लाइटिंग। दिवाली हमेशा से ही इंडिया का सबसे प्रसिद्ध त्यौहार रहा है, इस की ख़ूबसूरती देखते ही बनती है।
शादी मेरी एक बंगाली परिवार में होने के बाद से, दिवाली का आगमन मानो १ महीना पहले से ही हो जाता है, यानि दुर्गा पूजा से। दिल्ली में रहते हुए सुना तो बहुत था दुर्गा पूजा के बारे में, कभी-कभी पास की बंगाली कम्युनिटी में जाकर सेलिब्रेशन देखा भी था, पर कभी दिल के इतने करीब नहीं था। शादी के बाद पहली दुर्गा पूजा पर, मैं इंडिया में नहीं थी। देखा पतिदेव का मन बहुत उदास था, मैं भी जिंदिगी में पहली बार घर से इतनी दूर गई  थी, अभी परदेसी होना का भाव मन पर पूरी तरह हावी नहीं हुआ था, तो पतिकी भावनाओं को दिल से समझ नहीं पा रही थी। वक़्त गुज़रता गया और ये सिलसिला हर साल चलता रहा, दिल्ली की पड़ोस की दुर्गा पूजा, विदेश के एक छोटे से कम्युनिटी हॉल की दुर्गा पूजा में तब्दील हो गई , जगह बदल गई पर जज़्बातों में अम्मुमन कोई ज़्यादा फर्क नहीं आया था। फिर एकबार मैं और मेरे मिस्टर को दुर्गा पूजा के समय  इंडिया जाने का मौका मिला, मेरे पति का उल्लास देखते ही बनता  था, मैंने उनको इससे ज़्यादा खुश और उत्साहित  कभी नहीं देखा था । मैं भी बहुत खुश थी, आफ्टरऑल ये मेरी कायदे से जग-विख्यात कलकत्ता की पहली दुर्गा पूजा थी। दुर्गा पूजा कहने को तो 4-दिन का सेलिब्रेशन होता है, पर इसका उत्साह साल भर देखने को मिलता है।दुर्गा पूजा से महीनों पहले पण्डाल बनने शुरू हो जाते हैं । गिफ्ट्स और  शॉपिंग का सिलसिला महीनों पहले से ही शुरू हो जाता है। घरों की विशेष सफाई शुरू हो जाती है,  परदे धोना, पंखें, कूलर, पानी की टंकी, घर के जांगले, एकदम डीप क्लीनिंग के एपिसोड्स चलते हैं। दुर्गा पूजा के दिन जैसे-जैसे पास आने लगते हैं, बाज़ारों की रौनक बढ़ने लगती है। घरों पर रंग-बिरंगी लड़ियां झूलने लगती हैं। शुइली फूलों की सुगंध से सारा समाह महकने लगता है, कांशफूल भी मैदानों में झूलते नज़र आने लगते हैं। हर बंगाली अड्डे  की चर्चा का टॉपिक होता है कि इसबार दुर्गा ठाकुर किस वाहन से आएंगी, नौका, हाथी और घोड़ा। किसने कितनी और क्या-क्या शॉपिंग की, सब डिसकस होता है। किस पूजा समिति के क्लब की पूजा की थीम क्या है, इसबार कौन-कौन से पण्डाल विजिट किया जाएगा सब प्लानिंग की जाती है। किसदिन फॅमिली गेटटुगेदर और किसदिन फ्रेंड्स का अड्डा होगा, सब कुछ पहले से तय होता है। अखबार में दुर्गा पूजा की शॉपिंग के स्पेशल विज्ञापन छपने लगते हैं. माँ दुर्गा, शिवजी, गणेश , कार्तिकेय , लक्ष्मी और सरस्वती को लेकर हंसी मज़ाक होते हैं, ऐसा सिर्फ भारत में ही संभव है जहां भगवान को भी परिवार का दर्जा और सम्मान दिया जाता है।
फिर आता है महालया का दिन, औपचारिक  रूप से दुर्गा पूजा का आगमन। सब लोग सुबह-सुबह नहा धो कर महालया सुनने के लिए आतुर नज़र आते है, पहले महालया रेडियो पर सुना जाता था, फिर टीवी आ गया और आजकल तो सब लैपटॉप पर होता है। आखरी मुहूर्त तक दुर्गा  पूजा की तैयारी  को  फाइनल टच दिया जाता है। फिर आता है षष्ठी का दिन और उसदिन कोला बहू को गंगा घाट से स्नान कराके गणेश जी के साथ स्थापित किया जाता है और दुर्गा ठाकुर का घर में आगमन होता है। सुबह-सुबह नहा धोकर घर की ग्रेहणियां  सब कमरों की चौखट पर अल्पना देती हैं। परिवार के सबलोग मंदिर में पुष्पांजलि देने जातें हैं। षष्ठी के दिन माओं का व्रत होता है, निरामिष खाना बनता है। इसी दिन चोखुदान होता है यानि माँ दुर्गा की प्रीतिमा पर आंखें आंक कर उन्हें पूजा के लिए पूर्ण किया जाता है। और इसी दिन से सब पण्डाल दर्शन के लिए खोल दिए जातें हैं। फिर अष्टमी के दिन फिरसे  निरामिष खाना और मंदिर में सब पुष्पांजलि देने जाते हैं और शाम को मंगल आरती होती है। नवमी के दिन मांगशो यानि मटन बनता है, अष्टमी रात १२ बजे से ही मटन की दुकान के सामने लाइन लगाने से ही काम बनता है, नहीं तो चिकन से ही काम चलाना पड़ता है। दुर्गा पूजा के दौरान दोस्तों  रिश्तेदारों का तो आना जाना लगा ही रहता है। फिर आता है दशमी का दिन। ये बहुत ही मिश्रित भावनओं का दिन होता है, इस दिन कायदे से पूजा का अंतिम दिन होता है और इसी के साथ दुर्गा ठाकुर के जाने का वक़्त। सब सुहागनें दुर्गा ठाकुर को सिन्दूर लगा कर और मिष्ठी खिला कर, भीगी आंखों  से विदाई देती हैं इस वायदे के साथ कि अगले साल दुर्गा ठाकुर फिरसे अपने चारों बच्चों यानि लक्ष्मी , सरस्वती, गणेश और कार्तिकेय के साथ आएंगी.
दुर्गा पूजा सिर्फ माँ दुर्गा का आगमन नहीं है, इस उत्सव को मनाने, देश दुनिया से परिवार के सबलोग अपने-अपने घर जाने की कोशिश करते हैं और जो नहीं जा पाते, वो मन ही  मन परिवार को याद  करके उनके लिए   मंगलकामना करते हैं।
दुर्गा पूजा का सही मायने सिर्फ उत्साह, ख़ुशी नहीं, बल्कि परिवार, मित्रों और अपनों के साथ ख़ुशी सांझी करना है। शायद मैं अपने देश, अपने परिवार से इतनी दूर नहीं होती तो इसके सही मायनें कभी समझ ही नहीं पाती। ये सच्चे मायनों में एक घरवापसी का उत्सव है।

Tuesday, September 10, 2019

परदेसी

मैं परदेसी हूं, अपनों के साथ को रोती हूं
मेरे सब तीज-त्यौहार फीके हैं, दिवाली के दीये भी शायद भीगे हैं
मेरे मन का खालीपन कोई समझता नहीं, सब समय पैसों के तराजू पे तुलती हूं
मेरा कोई अपना नहीं, मैं परदेसी हूं

गैरों में भी तन्हा हूं, अपनों में भी बेगानी  हूं
सरहदों के दायरों में घिरी, जिम्मेदारियों के चक्रव्यूह में उलझी हूं
मेरा कोई अपना नहीं, मैं परदेसी हूं

ज़मीनी सरहदों को तो मैं लांघ आऊं, दिलों के फासलों को मैं कैसे मिटाऊं
भागी नहीं मैं अपनों से,  भागी नहीं मैं अपनों से,  न देश की समस्यों से
चाहत थी छोटी सी, दुनियां देखूं अपनी अँखियों से
बस चाहत थी छोटी सी, दुनियां देखूं अपनी अँखियों से

लौटना मैं भी चाहती थी, पर अपनों का साथ ही छोटा था
लौटना मैं भी चाहती थी, पर अपनों का साथ ही छोटा था
ज़रा-ज़रा वक़्त जीत गया, गैरों के संग ही जीवन मेरा बीत गया

अफ़सोस नहीं कोई, मन में एक कसक रह गई
कब दिलों की दूरी इस कदर बढ़ गई, यादों की नाज़ूक डोरी भी उलझ के बिखर गई ,
यादों की नाज़ूक डोरी भी उलझ के बिखर गई

हर परदेसी की ये कथा  है, हर परदेसी की ये कथा है , कटे पर जैसे परिंदों सी व्यथा है
जिसने जो चाहा, समझा है,
जिसने जो चाहा, समझा है,
दिल गवाह है, मैं गैर नहीं, तुम्हारी अपनी हूं