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Monday, April 20, 2020

कोरोना का कहर

आज कल घरों की रसोई  में तेल-छौंको की सिरहन लौट आई है ।
ना दिवाली है ना होली , क्यों पकवानों की खुशबू हवा में छाई है ॥
घर-दरवाजों पर अक्सर जिनके झूला करते थे ताले, 
 घर-दरवाजों पर अक्सर जिनके झूला करते थे ताले,  
बागानों  में उनकी जैसे बाहार नई आई है , बागानों  में उनकी जैसे बाहार नई आई है ।
अपनों के साथ-सलामती का सुकून भी है, फिर भी कही खौंफ ने  दिलों-दिमाग में जगह बनाई है ॥  
 
लगता है मौसम बदला है, लगता है मौसम बदला है, 
बाज़ारों में रौनक गायब है , रास्ते -घाट भी सब खाली हैं ।
हवा में भी एक अजब सा तीखापन है , सोशल मीडिया पर भी पसरी तन्हाई है ।
होटल रेस्तरां सब खाली हैं , लोगों ने घर की ओर पैदल ही की अगवाई है।
घर-दफ्तर के मायनें बदल गए  हैं  रातों -रात, वर्क फ्रॉम होम ने धूम मचाई है ।
अख़बार कागज सब जगह एक ही दोहाई है, कोरोना ने पूरी पृथ्वी पर तबाही मचाई है ॥  
 
गरीब कल भी नंगा था, गरीब आज भी नंगा है, 
बेबसी से दो मुठो दाल चावल के लिए आंखें उसने झुकाई हैं।
 
तालियॉं भी बजी , थालियों भी पिटी,
कहीं दीये जले,तो कही दिल जले,
गरीब और लाचार की नहीं कहीं कोई सुनवाई है।         
राजनीती जोरों पर है, राजनीती जोरों पर है , 
सबने बहती गंगा में नाँव अपनी-अपनी चलाई है ॥  
 
दोष-आरापों का बाजार गरम है, ना जाने  किसके दोषों व नियतों की सजा है, ये  किसकी बेपरवाई है ।  
इतिहास गवाह है  कमज़ोर बेबस ने ही की इसकी भरपाई है ॥    
 
जड़ों को रखो संभाल कर, इस वक़्त की बस यही दुहाई है , 
इंसानियत ने इंसानियत की गुहार लगाई  है ॥ 
   
धन-दौलत औधा  सब  बेकार है,   क़ुदरत के सामने इंसान बहुत लाचार है ।  
बात बस इतनी से है, प्रकृति ने सबक सिखाने को , दौलत के अंधों की लगाम लगाई  है ॥  
 बात बस इतनी सी है,  प्रकृति ने सबक सिखाने को , दौलत के अंधों की लगाम लगाई  है ॥  

Wednesday, September 18, 2019

दुर्गा पूजा: अपनों की घरवापसी का उत्सव

साल के इस वक़्त  घर की बहुत याद आती है।  पतझड़ बोलो या शरद ऋतु का प्रारंम्भ, पत्तें रंग बदल रहे हैं, हवा में एक अजीब सी ठण्डक महसूस होती है। दिन छोटे होने लगे हैं, शाम होते-होते ही अँधेरा छाने लगता है, कदमों की चाल जानो बढ़ जाती है घर की ओर जल्दी से पहुंचने को। इंडिया बोलो या अमेरिका, सब जगह साल का ये वक़्त त्योहारों का होता है, कहीं दुर्गा पूजा और दिवाली  की धूम है,  तो कहीं क्रिसमस की लाइटिंग। दिवाली हमेशा से ही इंडिया का सबसे प्रसिद्ध त्यौहार रहा है, इस की ख़ूबसूरती देखते ही बनती है।
शादी मेरी एक बंगाली परिवार में होने के बाद से, दिवाली का आगमन मानो १ महीना पहले से ही हो जाता है, यानि दुर्गा पूजा से। दिल्ली में रहते हुए सुना तो बहुत था दुर्गा पूजा के बारे में, कभी-कभी पास की बंगाली कम्युनिटी में जाकर सेलिब्रेशन देखा भी था, पर कभी दिल के इतने करीब नहीं था। शादी के बाद पहली दुर्गा पूजा पर, मैं इंडिया में नहीं थी। देखा पतिदेव का मन बहुत उदास था, मैं भी जिंदिगी में पहली बार घर से इतनी दूर गई  थी, अभी परदेसी होना का भाव मन पर पूरी तरह हावी नहीं हुआ था, तो पतिकी भावनाओं को दिल से समझ नहीं पा रही थी। वक़्त गुज़रता गया और ये सिलसिला हर साल चलता रहा, दिल्ली की पड़ोस की दुर्गा पूजा, विदेश के एक छोटे से कम्युनिटी हॉल की दुर्गा पूजा में तब्दील हो गई , जगह बदल गई पर जज़्बातों में अम्मुमन कोई ज़्यादा फर्क नहीं आया था। फिर एकबार मैं और मेरे मिस्टर को दुर्गा पूजा के समय  इंडिया जाने का मौका मिला, मेरे पति का उल्लास देखते ही बनता  था, मैंने उनको इससे ज़्यादा खुश और उत्साहित  कभी नहीं देखा था । मैं भी बहुत खुश थी, आफ्टरऑल ये मेरी कायदे से जग-विख्यात कलकत्ता की पहली दुर्गा पूजा थी। दुर्गा पूजा कहने को तो 4-दिन का सेलिब्रेशन होता है, पर इसका उत्साह साल भर देखने को मिलता है।दुर्गा पूजा से महीनों पहले पण्डाल बनने शुरू हो जाते हैं । गिफ्ट्स और  शॉपिंग का सिलसिला महीनों पहले से ही शुरू हो जाता है। घरों की विशेष सफाई शुरू हो जाती है,  परदे धोना, पंखें, कूलर, पानी की टंकी, घर के जांगले, एकदम डीप क्लीनिंग के एपिसोड्स चलते हैं। दुर्गा पूजा के दिन जैसे-जैसे पास आने लगते हैं, बाज़ारों की रौनक बढ़ने लगती है। घरों पर रंग-बिरंगी लड़ियां झूलने लगती हैं। शुइली फूलों की सुगंध से सारा समाह महकने लगता है, कांशफूल भी मैदानों में झूलते नज़र आने लगते हैं। हर बंगाली अड्डे  की चर्चा का टॉपिक होता है कि इसबार दुर्गा ठाकुर किस वाहन से आएंगी, नौका, हाथी और घोड़ा। किसने कितनी और क्या-क्या शॉपिंग की, सब डिसकस होता है। किस पूजा समिति के क्लब की पूजा की थीम क्या है, इसबार कौन-कौन से पण्डाल विजिट किया जाएगा सब प्लानिंग की जाती है। किसदिन फॅमिली गेटटुगेदर और किसदिन फ्रेंड्स का अड्डा होगा, सब कुछ पहले से तय होता है। अखबार में दुर्गा पूजा की शॉपिंग के स्पेशल विज्ञापन छपने लगते हैं. माँ दुर्गा, शिवजी, गणेश , कार्तिकेय , लक्ष्मी और सरस्वती को लेकर हंसी मज़ाक होते हैं, ऐसा सिर्फ भारत में ही संभव है जहां भगवान को भी परिवार का दर्जा और सम्मान दिया जाता है।
फिर आता है महालया का दिन, औपचारिक  रूप से दुर्गा पूजा का आगमन। सब लोग सुबह-सुबह नहा धो कर महालया सुनने के लिए आतुर नज़र आते है, पहले महालया रेडियो पर सुना जाता था, फिर टीवी आ गया और आजकल तो सब लैपटॉप पर होता है। आखरी मुहूर्त तक दुर्गा  पूजा की तैयारी  को  फाइनल टच दिया जाता है। फिर आता है षष्ठी का दिन और उसदिन कोला बहू को गंगा घाट से स्नान कराके गणेश जी के साथ स्थापित किया जाता है और दुर्गा ठाकुर का घर में आगमन होता है। सुबह-सुबह नहा धोकर घर की ग्रेहणियां  सब कमरों की चौखट पर अल्पना देती हैं। परिवार के सबलोग मंदिर में पुष्पांजलि देने जातें हैं। षष्ठी के दिन माओं का व्रत होता है, निरामिष खाना बनता है। इसी दिन चोखुदान होता है यानि माँ दुर्गा की प्रीतिमा पर आंखें आंक कर उन्हें पूजा के लिए पूर्ण किया जाता है। और इसी दिन से सब पण्डाल दर्शन के लिए खोल दिए जातें हैं। फिर अष्टमी के दिन फिरसे  निरामिष खाना और मंदिर में सब पुष्पांजलि देने जाते हैं और शाम को मंगल आरती होती है। नवमी के दिन मांगशो यानि मटन बनता है, अष्टमी रात १२ बजे से ही मटन की दुकान के सामने लाइन लगाने से ही काम बनता है, नहीं तो चिकन से ही काम चलाना पड़ता है। दुर्गा पूजा के दौरान दोस्तों  रिश्तेदारों का तो आना जाना लगा ही रहता है। फिर आता है दशमी का दिन। ये बहुत ही मिश्रित भावनओं का दिन होता है, इस दिन कायदे से पूजा का अंतिम दिन होता है और इसी के साथ दुर्गा ठाकुर के जाने का वक़्त। सब सुहागनें दुर्गा ठाकुर को सिन्दूर लगा कर और मिष्ठी खिला कर, भीगी आंखों  से विदाई देती हैं इस वायदे के साथ कि अगले साल दुर्गा ठाकुर फिरसे अपने चारों बच्चों यानि लक्ष्मी , सरस्वती, गणेश और कार्तिकेय के साथ आएंगी.
दुर्गा पूजा सिर्फ माँ दुर्गा का आगमन नहीं है, इस उत्सव को मनाने, देश दुनिया से परिवार के सबलोग अपने-अपने घर जाने की कोशिश करते हैं और जो नहीं जा पाते, वो मन ही  मन परिवार को याद  करके उनके लिए   मंगलकामना करते हैं।
दुर्गा पूजा का सही मायने सिर्फ उत्साह, ख़ुशी नहीं, बल्कि परिवार, मित्रों और अपनों के साथ ख़ुशी सांझी करना है। शायद मैं अपने देश, अपने परिवार से इतनी दूर नहीं होती तो इसके सही मायनें कभी समझ ही नहीं पाती। ये सच्चे मायनों में एक घरवापसी का उत्सव है।

Friday, September 8, 2017

मेरी एक सहेली कुवारी रह गई




मेरी एक सहेली कुवारी रह गई, दुनिया की चकाचोंध में अंधयारी रह गई ॥

शकल -सूरत से तो ठीक थी,  टक्के-पैसे से भी रहीस थी ।
आशिक़ों की लम्बी लिस्ट थी, खुद को रखती भी एक दम फिट थी ।
एक अनसुलझी पहेली रह गई, कैसे ये सुन्दर कन्या अकेली रह गई॥

नौकरी-चाकरी तो ठीक-ठाक थी , आनसाइट जाने की भी सुनी बात थी ।
रिश्ते भी आए बहुत थे,फॉरेन में भी उसके बहुत दोस्त थे ।
मिला नहीं उसको मन का मेल , सब ही है विधाता का खेल ।
पढाई डिग्री सब धरी रह गई,कैसे ये लड़की छड़ी रह गई ॥

सबके तानों से वो घायल हो गई, चेहरे की मुस्कान भी रवाना हो गई ।
धीरे-धीरे वो मजबूरी बन गई, सब रिश्तों से उसकी दूरी बन गई ।
फेसबुक व्हाट्सप्प के सब कांटेक्ट छूट गए, सच्चे झूठे सब रिश्तें-नाते टूट गए ।
अब मिलता नहीं उसका कोई अपडेट है, लोग कहते हैं सब का अपना-अपना फेट (fate)  है  ॥
मेरी एक सहेली कुवारी रह गई, खुशियों भरे इस संसार में अधूरी रह गई, मेरी एक सहेली कुवारी रह गई ॥