आज कल घरों की रसोई में तेल-छौंको की सिरहन लौट आई है ।
ना दिवाली है ना होली , क्यों पकवानों की खुशबू हवा में छाई है ॥
घर-दरवाजों पर अक्सर जिनके झूला करते थे ताले,
घर-दरवाजों पर अक्सर जिनके झूला करते थे ताले,
बागानों में उनकी जैसे बाहार नई आई है , बागानों में उनकी जैसे बाहार नई आई है ।
अपनों के साथ-सलामती का सुकून भी है, फिर भी कही खौंफ ने दिलों-दिमाग में जगह बनाई है ॥
लगता है मौसम बदला है, लगता है मौसम बदला है,
बाज़ारों में रौनक गायब है , रास्ते -घाट भी सब खाली हैं ।
हवा में भी एक अजब सा तीखापन है , सोशल मीडिया पर भी पसरी तन्हाई है ।
होटल रेस्तरां सब खाली हैं , लोगों ने घर की ओर पैदल ही की अगवाई है।
घर-दफ्तर के मायनें बदल गए हैं रातों -रात, वर्क फ्रॉम होम ने धूम मचाई है ।
अख़बार कागज सब जगह एक ही दोहाई है, कोरोना ने पूरी पृथ्वी पर तबाही मचाई है ॥
गरीब कल भी नंगा था, गरीब आज भी नंगा है,
बेबसी से दो मुठो दाल चावल के लिए आंखें उसने झुकाई हैं।
तालियॉं भी बजी , थालियों भी पिटी,
कहीं दीये जले,तो कही दिल जले,
गरीब और लाचार की नहीं कहीं कोई सुनवाई है।
राजनीती जोरों पर है, राजनीती जोरों पर है ,
कहीं दीये जले,तो कही दिल जले,
गरीब और लाचार की नहीं कहीं कोई सुनवाई है।
राजनीती जोरों पर है, राजनीती जोरों पर है ,
सबने बहती गंगा में नाँव अपनी-अपनी चलाई है ॥
दोष-आरापों का बाजार गरम है, ना जाने किसके दोषों व नियतों की सजा है, ये किसकी बेपरवाई है ।
इतिहास गवाह है कमज़ोर बेबस ने ही की इसकी भरपाई है ॥
इतिहास गवाह है कमज़ोर बेबस ने ही की इसकी भरपाई है ॥
जड़ों को रखो संभाल कर, इस वक़्त की बस यही दुहाई है ,
इंसानियत ने इंसानियत की गुहार लगाई है ॥
इंसानियत ने इंसानियत की गुहार लगाई है ॥
धन-दौलत औधा सब बेकार है, क़ुदरत के सामने इंसान बहुत लाचार है ।
बात बस इतनी से है, प्रकृति ने सबक सिखाने को , दौलत के अंधों की लगाम लगाई है ॥
बात बस इतनी सी है, प्रकृति ने सबक सिखाने को , दौलत के अंधों की लगाम लगाई है ॥
बात बस इतनी से है, प्रकृति ने सबक सिखाने को , दौलत के अंधों की लगाम लगाई है ॥
बात बस इतनी सी है, प्रकृति ने सबक सिखाने को , दौलत के अंधों की लगाम लगाई है ॥
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