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Tuesday, September 5, 2017

साह्स

जब जुड़ी थी तुमसे, तो माना बचपना था, नादानी थी
जिंदिगी की बारीकियों से अंजानी थी
सोचा था लम्बा सफर है, सीख लूंगी सब, पर मैं भी कितनी दीवानी थी

जिंदिगी बदलती है हर पल, पर कभी न सोचा था कि तू भी बदल जायेगा,
ऐसे कैसे कोई अपना, सामने से पलट जायेगा

सोचती थी सब है आपार, हमारी खुशियां , हमारा प्यार
ऐसे कैसे सिमट गया, तेरा मेरा घर-संसार

अब जब दस्तक देता है समय दरवाज़े पर
देखती  सब और अंधकार हूं
अभी भी आवाक हूं, घबराई, सिमटी बैठी बदहवास हूं

कल तक थे जो राही एक मंज़िल के, आज कैसे गुमराह हो गए
हम-तुम ऐसे  कैसे इतने बैपरवाहा हो गए
वो लम्हे, वो साथ, वो हंसी, वो खिलखिलाट
वो बातें, वो यादें,  कब कैसे कहां विलुप्त हो गए

दम घुटने लगा है इस असमंजस मे, बिलखते-रोते सिसकने मे
हो अगर संग, तो साथ दो, नहीं तो खुले आसमानों मे उड़ने का साह्स दो


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