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Friday, April 24, 2020

स्वार्थी इंसान

सब अख़बारों में यही समाचार है, पूरी दुनिया को हुआ बुखार है।

अनजाना-अनदेखा कोई खतरा है, लगता है खुदा ने इंसानी क़ाबलियत को पर्खा है॥

 

ऑस्ट्रेलिया - ऐमज़ॉन के जंगल खाक हो गए,

कितने बे ज़ुबान जानवर ज़िंदा जल गए,

हम थोड़े ही क़सूरवार हैं, कहकर सब हाथ झटक गए।

 

खेत खोदकर कल-कारखाने लग गए, 

बेक़सूर किसान सूली पर चढ़  गए।

 

रातों -रात तेल के कुएं  ख़ुद गए, 

धरती कम पड़ी तो समुद्र पर आलीशान मक़बरे बन गए।

 

बर्फ़ पिघल कर जल हो गई, 

कभी सूखा, कहीं ज़लज़ले  बढ़ गए।

 

पृथ्वी पूरी नाश हो गई,  

प्रदूषण  से पर्यावरण में फाँक हो गईं,

दरकिनार कर सब दावे, तुम  आगे बढ़ गए ।

 

सब सब जानते थे , फिर भी मूक खड़े थे,

पूछा कसूर किसका है, सब आँखें मूँदे अपनी-अपनी गली को मुड़ गए।

 

देखो नतीजा अपनी बेवकूफी का, 

चित्र कितनों के बेवक्त ही दीवारों पर टंग गए।

 

अब क्यूँ चिल्लाते हो, आँसू घड़याली बहाते हो ,

क़ुदरत का भी अपना क़ानून है, प्रकृति जानती है तुम कितने मासूम हो ।

 

बहुत हो चुकी तुम्हारी मनमानी है, इसलिए नहीं मिला तुमको दर्जा इंसानी है ।

 

सब अखबारों में यही हाहाकार है, पूरी दुनिया कोरोना के सामने लाचार है।

अनजाना-अनदेखा कोई खतरा है, लगता है खुदा ने इंसानी क़ाबलियत को पर्खा है॥

Monday, April 20, 2020

कोरोना का कहर

आज कल घरों की रसोई  में तेल-छौंको की सिरहन लौट आई है ।
ना दिवाली है ना होली , क्यों पकवानों की खुशबू हवा में छाई है ॥
घर-दरवाजों पर अक्सर जिनके झूला करते थे ताले, 
 घर-दरवाजों पर अक्सर जिनके झूला करते थे ताले,  
बागानों  में उनकी जैसे बाहार नई आई है , बागानों  में उनकी जैसे बाहार नई आई है ।
अपनों के साथ-सलामती का सुकून भी है, फिर भी कही खौंफ ने  दिलों-दिमाग में जगह बनाई है ॥  
 
लगता है मौसम बदला है, लगता है मौसम बदला है, 
बाज़ारों में रौनक गायब है , रास्ते -घाट भी सब खाली हैं ।
हवा में भी एक अजब सा तीखापन है , सोशल मीडिया पर भी पसरी तन्हाई है ।
होटल रेस्तरां सब खाली हैं , लोगों ने घर की ओर पैदल ही की अगवाई है।
घर-दफ्तर के मायनें बदल गए  हैं  रातों -रात, वर्क फ्रॉम होम ने धूम मचाई है ।
अख़बार कागज सब जगह एक ही दोहाई है, कोरोना ने पूरी पृथ्वी पर तबाही मचाई है ॥  
 
गरीब कल भी नंगा था, गरीब आज भी नंगा है, 
बेबसी से दो मुठो दाल चावल के लिए आंखें उसने झुकाई हैं।
 
तालियॉं भी बजी , थालियों भी पिटी,
कहीं दीये जले,तो कही दिल जले,
गरीब और लाचार की नहीं कहीं कोई सुनवाई है।         
राजनीती जोरों पर है, राजनीती जोरों पर है , 
सबने बहती गंगा में नाँव अपनी-अपनी चलाई है ॥  
 
दोष-आरापों का बाजार गरम है, ना जाने  किसके दोषों व नियतों की सजा है, ये  किसकी बेपरवाई है ।  
इतिहास गवाह है  कमज़ोर बेबस ने ही की इसकी भरपाई है ॥    
 
जड़ों को रखो संभाल कर, इस वक़्त की बस यही दुहाई है , 
इंसानियत ने इंसानियत की गुहार लगाई  है ॥ 
   
धन-दौलत औधा  सब  बेकार है,   क़ुदरत के सामने इंसान बहुत लाचार है ।  
बात बस इतनी से है, प्रकृति ने सबक सिखाने को , दौलत के अंधों की लगाम लगाई  है ॥  
 बात बस इतनी सी है,  प्रकृति ने सबक सिखाने को , दौलत के अंधों की लगाम लगाई  है ॥