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Tuesday, September 10, 2019

परदेसी

मैं परदेसी हूं, अपनों के साथ को रोती हूं
मेरे सब तीज-त्यौहार फीके हैं, दिवाली के दीये भी शायद भीगे हैं
मेरे मन का खालीपन कोई समझता नहीं, सब समय पैसों के तराजू पे तुलती हूं
मेरा कोई अपना नहीं, मैं परदेसी हूं

गैरों में भी तन्हा हूं, अपनों में भी बेगानी  हूं
सरहदों के दायरों में घिरी, जिम्मेदारियों के चक्रव्यूह में उलझी हूं
मेरा कोई अपना नहीं, मैं परदेसी हूं

ज़मीनी सरहदों को तो मैं लांघ आऊं, दिलों के फासलों को मैं कैसे मिटाऊं
भागी नहीं मैं अपनों से,  भागी नहीं मैं अपनों से,  न देश की समस्यों से
चाहत थी छोटी सी, दुनियां देखूं अपनी अँखियों से
बस चाहत थी छोटी सी, दुनियां देखूं अपनी अँखियों से

लौटना मैं भी चाहती थी, पर अपनों का साथ ही छोटा था
लौटना मैं भी चाहती थी, पर अपनों का साथ ही छोटा था
ज़रा-ज़रा वक़्त जीत गया, गैरों के संग ही जीवन मेरा बीत गया

अफ़सोस नहीं कोई, मन में एक कसक रह गई
कब दिलों की दूरी इस कदर बढ़ गई, यादों की नाज़ूक डोरी भी उलझ के बिखर गई ,
यादों की नाज़ूक डोरी भी उलझ के बिखर गई

हर परदेसी की ये कथा  है, हर परदेसी की ये कथा है , कटे पर जैसे परिंदों सी व्यथा है
जिसने जो चाहा, समझा है,
जिसने जो चाहा, समझा है,
दिल गवाह है, मैं गैर नहीं, तुम्हारी अपनी हूं

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