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Thursday, January 17, 2019

प्रकृति की परिभाषा

पहाड़ों की भी अपनी भाषा होती है, जितनी  ऊंचाई, उतनी ही गहराई होती है ।
धीरे-धीरे पहाड़ बात करने लगते हैं, एक अनजानी डोर से बांधें रखते हैं ॥

पहाड़ों की गोद से झीलें झलकती हैं ।
पानी की बूँदें आंखों में चमकती हैं ॥

इनका ठंडा शीतल जल आत्मा तृपत कर देता है ।
थके हुए राही को मंज़िल पर बढ़ने  की गति देता है॥

तन्हा कभी मह्सूस नहीं होता, पहाड़ों की ख़ामोशी में एक गूंज होती है ।
मानो कोई बुला राह हो नाम मेरा, तू क्यूं भटक रही है, तू किसे ढूंढ़ती है ॥

हर मुड़ती राह एक पहेली है, ये खूबसूरत वादियां ही अब मेरी सहेली हैं ।
कभी बादलों की घटा जमी पर उतर आती है ।
कभी सफ़ेद बर्फ की चादर अठखेलियों करती है।
किसे पता था प्रकृति भी इस कदर हंसती   है॥

जीवन जब थक हार कर बैठ जाता है, अच्छे बुरे ख़यालों का ताना-बाना बुनता है ।
हवा का झोंका झकझोर देता है, सब थकान उदासी को उधेड़ देता है ॥

जब दिवाकर दस्तक देता है दूर कहीं  ऊँची  चोटी पर, उजालों की किरणों से मन का सब अंधकार  छंट जाता है।
किसे पता था पहाड़ों  से लिपट कर घर-परिवार मिलता  है ॥

पहाड़ों की भी अपनी भाषा होती है, एक अनजानी डोर से बांधें होती है  ॥

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